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The Train... beings death 25


आयाम द्वार को दोबारा ना खुलने देने के लिए आचार्य चतुरसेन ने आचार्य अग्निवेश की सहायता से एक अनुष्ठान किया था.. जिसे सफलतापूर्वक पूर्ण करके भविष्य में भी वह आयाम द्वार ना खुले यह सुनिश्चित कर लिया गया था।  सभी आयाम द्वार के दोबारा से बंद हो जाने के लिए खुश थे।


 तभी कमल नारायण ने अपना शक प्रकट किया। कमल नारायण ने कहा, "हमने आयाम द्वार का निर्माण परीलोक और हिमालय स्थित उस दिव्य स्थान पर जाने के लिए किया था। जहां पर बहुत से ज्ञानी साधु, सन्यासी और ऋषिगण रहते हैं। परंतु हमारी ही किसी एक भूल के कारण यह आयाम द्वार उस स्थान पर खुला जहां पर उसे नहीं खुलना चाहिए था। सभी प्रयासों के बाद भी बंद आयाम द्वार पुनः अंदर से खोलने का प्रयत्न किया जाने लगा। कदाचित हमारे इस आयोजन में ऐसी कोई त्रुटि तो नहीं रह गई? मैं केवल इसकी संभावना व्यक्त कर रहा हूं! अगर हमें अपनी त्रुटियों का ज्ञान हो तो हम उसे समय पर सुधार सकते हैं और उससे होने वाली हानि से बचा जा सकता है।" 


आचार्य चतुरसेन कमल नारायण की बात से सहमत नजर आ रहे थे। उन्हें भी लगा था कि संपूर्ण बात पर एक बार फिर से ध्यान दे देना चाहिए.. ताकि अभी की छोटी सी लापरवाही भविष्य में कोई बड़ा संकट पैदा ना कर दे। आचार्य चतुरसेन भी कमल नारायण की बात में हां में हां मिलाते हुए बोले, "हमें भी लगता है कि अब हमें भी एक और नजर अपनी सुरक्षा व्यवस्था पर डाल लेनी चाहिए। जिससे किसी भी चूक की स्थिति में हमारे पास कोई और विकल्प भी मौजूद हो।"


 आचार्य अग्निवेश ने कहा, "आपने बिल्कुल ठीक कहा आचार्य!  आप हमें आज्ञा दीजिए कि हम अपने ध्यान योग से इस बारे में पता लगा सके कि हमारा अनुष्ठान कितना सफल हुआ है?"


 आचार्य चतुरसेन ने हां में अपनी गर्दन हिलाई तो आचार्य अग्निवेश वही अपने आसन पर पद्मासन लगाकर बैठ गए। आचार्य अग्निवेश जब ध्यान में थे तो शुरू में उनके चेहरे पर असीम शांति दिखाई दे रही थी। कुछ ही पलों के बाद उनके चेहरे पर भय, संकट और चिंता के भाव एक साथ दिखाई देने लगे थे। उनके चेहरे के भावों को देख कर आचार्य चतुरसेन भी परेशान दिखाई देने लगे थे। तभी आचार्य अग्निवेश ने आंखें खोली।


 आचार्य अग्निवेश के आंखें खोलते ही आचार्य चतुरसेन ने पूछा, "क्या हुआ आचार्य..? आप इतने चिंतित दिखाई दे रहे थे? कोई समस्या..??"


 आचार्य अग्निवेश ने अपने जगह से खड़े होते हुए कहा, "आचार्य..! हमारा अनुष्ठान सफलतापूर्वक पूर्ण हुआ है परंतु जब हमने अनुष्ठान शुरू किया था तब आयाम द्वार लगभग सम्पूर्ण बन ही चुका था। हमारे अनुष्ठान के कारण वह सफलतापूर्वक बंद तो हो गया परंतु अगर उन जीवों ने पुनः इसे खोलने का प्रयास किया तो संभव है कि इसे खोला जा सके।"


 यह सुनते ही सभी परेशान हो गए थे। आचार्य चतुरसेन भी थोड़ा चिंतित दिखाई दे रहे थे। तभी आचार्य अग्निवेश ने कहा, "आचार्य..! जैसा कि हमने पहले विचार किया था हम इस पूरे स्थान को कीलत कर देते हैं। ताकि अगर द्वार खुले भी तो किसी भी जीव को धरती पर आने का रास्ता ना मिल पाए।"


 आचार्य अग्निवेश की बात सुनकर सभी इधर उधर देख रहे थे। तभी आचार्य चतुरसेन ने कहा, "हम कर सकते हैं!  परंतु उसके लिए हमें बहुत ही बड़ी कीमत चुकानी होगी और हम उसके लिए तैयार नहीं है!"


 आचार्य चतुरसेन की बात सुनते ही आचार्य अग्निवेश ने कहा, "आचार्य..! इस समय गुरुकुल को आप की आवश्यकता है। इसलिए मैं उस कीमत को चुकाने के लिए तैयार हूं।"


 दोनों आचार्यों की इस बात से कमल नारायण और गौतम असमंजस में दिखाई दे रहे थे। कमल नारायण ने आचार्य से पूछा, "आचार्य..! आप किस कीमत की बात कर रहे हैं?"


 आचार्य चतुरसेन ने आचार्य अग्निवेश की तरफ देखा तो आचार्य अग्निवेश ने कमल नारायण के सर पर हाथ रखते हुए कहा, "कुछ नहीं पुत्र..! कुछ भी नहीं..! हम सब कुछ देख लेंगे। आप चिंता ना करें!"


 तभी गौतम ने आगे बढ़कर आचार्य अग्निवेश के हाथ पकड़ते हुए कहा, "नहीं पिताजी..! आपको बताना ही होगा।"


 आचार्य अग्निवेश ने आचार्य चतुरसेन की तरफ देखा तो आचार्य चतुरसेन में अपनी गर्दन ना में हिलाई। गौतम ने आचार्य चतुरसेन का इशारा देख लिया। उसने तुरंत ही आचार्य अग्निवेश का हाथ अपने सर पर रखते हुए पूछा, "बताइए पिताश्री..? आप किस कीमत की बात कर रहे हैं? आपको मेरी सौगंध है!"


 सौगंध की बात सुनते ही आचार्य अग्निवेश की आंखों में हल्की सी नमी आ गई। उन्होंने अपना हाथ गौतम के सर से हटाते हुए कहा, "इस स्थान को कीलित करने के लिए एक बली देनी होगी।   "नरबलि..!!" वह भी ऐसे व्यक्ति की जो स्वयं से अपनी बलि देने के लिए तैयार हो।"


 यह सुनते ही गौतम और कमल नारायण की आंखों से आंसू आ गए। तभी गौतम ने आचार्य अग्निवेश को कमर से पकड़ कर गले लगा लिया और कहा, "नहीं पिताश्री..! मेरी भूल का दंड आपको नहीं मिलना चाहिए। आपकी आश्रम को बहुत ही ज्यादा आवश्यकता है।"



 तभी आचार्य चतुरसेन ने आगे बढ़कर कहा, "गौतम बिल्कुल ठीक कह रहा है आचार्य! इस समय इस कार्य के लिए सर्वथा उपयुक्त पात्र में हूं। मैं ही इस कार्य के लिए अपने जीवन का त्याग करने के लिए तैयार हूं।"


 गौतम ने आचार्य अग्निवेश को छोड़कर आचार्य चतुरसेन के पैर पकड़ लिए और कहा, "गुरुदेव आप दोनों की ही आश्रम को बहुत ज्यादा आवश्यकता है और फिर यह सब कुछ मेरे ही कारण हुआ है तो इसे ठीक करने की उत्तरदायित्व भी मेरा ही बनता है। मैं ही इस कार्य के लिए अपने प्राणों का त्याग करूंगा।"


 गौतम की बात सुनकर आचार्य अग्निवेश ने उसे अपने गले लगाते हुए कहा, "पुत्र..! तुम भले ही मुझे जंगल में मिले थे। परंतु मैंने सदैव तुम्हें अपने पुत्र के समान ही पाला पोसा है। कोई भी पिता अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र की जीवन लीला समाप्त होते नहीं देख सकता। मैं भी नहीं देख पाऊंगा इसीलिए तुम अपना हठ छोड़ दो। मैं तुम्हारे जीवन के अपने प्राण सहर्ष त्यागने के लिए तैयार हूं।"


 तभी गौतम ने अपने पिता आचार्य अग्निवेश के आंसू पौंछते हुए कहा, "पिताश्री..! आप गुरुओं ने ही तो सिखाया है कि अपनी भूल का प्रायश्चित हमें स्वयं करना चाहिए। आत्मा तो सदा अमर होती है। इस शरीर का क्या मोह करना? आप मुझे मत रोकिए यदि आज आपने मुझे रोका तो मुझे जीवन भर इस बात का अपराध बोध रहेगा कि मेरे ही कारण मेरे सभी प्रियजनों ने अपने प्राण त्याग दिए और मैं अभी भी जीवित हूं। क्या आप सभी मुझे पूरी जिंदगी इस अपराध बोध में देखना चाहते हैं कि मैंने मानवता के ऊपर इतना बड़ा संकट लाकर खड़ा कर दिया? जिसके कारण मेरे पिता और मेरे मित्रों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा।" 


आचार्य अग्निवेश और आचार्य चतुरसेन के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था। उन्होंने एक दूसरे की तरफ देखते हुए भरे मन से गौतम के सर पर हाथ फेरा। गौतम ने अपने आंसू पौंछे और उत्साहित होकर कहा, "आचार्य.! ब्रह्म मुहूर्त आरंभ हो चुका है। कहते हैं कि ब्रह्म मुहूर्त में कोई भी कार्य किया जाए तो उसकी सफलता शत प्रतिशत होती है। अतः आप लोग भी इस कार्य की सफलता के लिए शीघ्र अति शीघ्र अपना अगला अनुष्ठान आरंभ कर दें।"


गौतम की बात मानते हुए आचार्य अग्निवेश और आचार्य चतुरसेन ने भरे मन से अनुष्ठान आरंभ कर दिया। धीरे धीरे मंत्र जाप आरंभ हो गया था। कमल नारायण एक कोने में खड़ा सब कुछ होते हुए देख रहा था। कमल नारायण को भी पता था कि जो भी कुछ हुआ था उसमें गौतम का कोई दोष नहीं था। गौतम ने केवल उस पुस्तक में लिखी तंत्र विधि को उपयोग करके आयाम द्वार बनाना सीखा था। परंतु उस प्रयोग के उल्टा पड़ने का सबसे बड़ा कारण कमल नारायण था। कमल नारायण की ही की गई गलत ज्योतिष गणना के कारण वह आयाम द्वार बना तो सही लेकिन खुला ऐसे विचित्र स्थान पर जहां पर उसे नहीं खुलना चाहिए था।


 कमल नारायण के अंदर इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह सबके सामने जाकर अपनी गलती मान सके और उसकी क्षमा मांग सके। गौतम को भी नहीं पता था कि कमल नारायण की गलत ज्योतिष गणना के कारण ही वह सब कुछ दुर्घटनाएं हुई थी। गौतम तो अपने आप को इस सब का किए का दोषी मान रहा था।


 जल्दी ही उस स्थान की सुरक्षा के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान पूरा हो गया। अनुष्ठान के पूर्ण होते ही हवन कुंड से एक लकड़ी निकालकर आचार्य चतुरसेन ने गौतम को देते हुए कहा, "गौतम..! अब तुम अति शीघ्र इस स्थान के चारों तरफ इस जलती हुई लकड़ी से एक घेरा बना दो।"


 गौतम ने आचार्य के हाथ से लकड़ी को लिया और सुरक्षा चक्र बनाने के लिए चला गया। कमल नारायण को वहीं खड़ा देखकर आचार्य ने कहा, "कमल नारायण.! एक काम करो!  तुम शीघ्र अति शीघ्र एक बड़ा सा गड्ढा खोदना शुरू कर दो।"


 आचार्य अग्निवेश ने वहां पर निशान लगा दिया जितने में गड्ढा खोदना था। निशान के हिसाब से कमल नारायण तेजी से गड्ढा खोदने लगा। जब तक गड्ढा खुद का तैयार हुआ तब तक गौतम उस पूरे जंगल के अधिकांश भाग पर जलती हुई लकड़ी से सुरक्षा घेरा बनाकर लौट आया था।


 गौतम के आते ही आचार्य अग्निवेश ने भावुक होकर गले लगा लिया और कहा, "पुत्र.! तुम सदैव याद रखना कि तुमने कोई भी भूल नहीं की है। तुम सदैव मेरे प्रिय थे और प्रिय रहोगे। तुमने जो भी कुछ आज किया है उस को हम कभी भूल नहीं पाएंगे।" इतना कहकर आचार्य अग्निवेश ने फिर से गौतम को गले लगा लिया। गौतम ने भी कस कर आचार्य अग्निवेश को गले लगा लिया था।


 कुछ देर तक दोनों ही एक दूसरे के गले लग कर आंसू बहाते रहे। तभी आचार्य चतुरसेन ने कहा, "आचार्य इससे पहले कि मुहूर्त बीत जाए हमें आगे की विधि शुरू करनी होगी।" यह कहते हुए आचार्य चतुरसेन का ह्रदय भी बहुत ज्यादा द्रवित हो रहा था पर इस समय कुछ और किया भी नहीं जा सकता था।


 आचार्य अग्निवेश ने वहां से थाली उठाई और गौतम के माथे पर एक त्रिपुंड बनाकर रोली से तिलक लगा दिया। वहां पर रखा पूजन का सारा सामान अभी खोदे गए गड्ढे में रखवा दिया था  उस के बीचो बीच गौतम को बिठा दिया गया। गौतम के चेहरे से ऐसा नहीं लग रहा था कि उसे मृत्यु का भय हो। उसके चेहरे से असीम शांति और प्रसन्नता दिखाई दे रही थी। गौतम को बिठाकर कुछ मंत्रों और विधियों से गौतम का पूजन किया और क्षमा याचना की.. के गौतम को इस प्रयोजन के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करना पड़ रहा था।



सारी विधियां पूर्ण होते ही आचार्य चतुरसेन की आज्ञा पाकर वहीं पर रखें एक बड़े से खड़ग से गौतम ने स्वयं अपना सर धड़ से अलग कर दिया। आचार्य अग्निवेश इस दृश्य को देख नहीं पा रहे थे.. उनकी आंखों से आंसू बह निकले थे। कमल नारायण उस दृश्य को देखते ही बेहोश होकर गिर गया था। आचार्य अग्निवेश और आचार्य चतुरसेन ने उस गड्ढे को मिट्टी से पूरा ढक दिया और उसके ऊपर एक कल्पवृक्ष लगा दिया।


 उसके बाद आचार्य चतुरसेन ने आचार्य अग्निवेश से कहा, "आप दुखी मत होइए आचार्य..! गौतम ने मानवता की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया है। आप रोकर उस बलिदान को व्यर्थ मत जाने दीजिए।"


 फिर आगे कहा, "सवेरा हो गया है। अब हमें जल्दी से जल्दी हमें आश्रम पहुंचना होगा। अगर किसी को यहां हुई घटना के बारे में पता चला तो संकट उत्पन्न हो सकता है।"


 इतना कहकर आचार्य चतुरसेन ने कमल नारायण को गोद में उठाया और आश्रम लौट आए।"



 इतना कहकर कमल नारायण ने अपनी बात खत्म की। इंस्पेक्टर  कदंब ने शांति से पूरी बात सुनी पर नीरज के मन में अभी भी कुछ सवालों के जवाब जानने की इच्छा थी।



क्रमशः...


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6 Comments

Punam verma

27-Mar-2022 06:36 PM

बहुत खूब पार्ट रहा यह भी

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Aalhadini

28-Mar-2022 02:10 AM

धन्यवाद

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Seema Priyadarshini sahay

02-Mar-2022 04:22 PM

बहुत खूबसूरत

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Aalhadini

03-Mar-2022 12:49 AM

धन्यवाद 🙏🏼

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Zakirhusain Abbas Chougule

02-Mar-2022 02:16 AM

Very nice

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Aalhadini

03-Mar-2022 12:49 AM

Thanks 😊 🙏

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